Saturday, 3 March 2018

ग़ज़ल 90 देखिये इस शहर में , सबका अलग किरदार है

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देखिये इस शहर में , सबका अलग किरदार है ।
दिख रहा है ठीक जो, वो ही असल बीमार है ।।

बेसबर गरजा किये, उन बादलों को क्या पता ।
जो बरस कर झर गये, वो मेघ ही स्वीकार है ।।

जीत के उन्माद में , वो दावतें करता रहा ।
हार अपनों को मिली , तो जीत भी वो हार है ।।

नफरतों के दौर मे जब सरफ़रोशी हो रही ।
तो गुलामी की हदों का आज भी अधिकार है ।।

व्यर्थ क्रंदन के स्वरों का डाकिया बनकर लगा ।
हर उदासी का मुखौटा बेहुदा मक्कार है।।

था तमाशा यार का भी , था भरोसा प्यार पर ।
उलझनों से बच निकल तो , आशिक़ी साकार है ।।

हसरतों का खामियाजा , तब भुगतना आप को ।
जब किराये पर खड़ी हर , रश्म ही व्यापार है ।।

मै जुलूसे इश्क़ की फिर , पैरवी करने चला ।
हर मुलाजिम हुस्न का ये जानिये गद्दार है ।।

इन गुलों गुलफ़ाम को माना मुहब्बत आपसे ।
हम खिजां से हो गये हम सुर्ख शाखें यार है ।।

आरजू भी इसतरह से कर रहे वो भोर की ।
लग रहा है रोशिनी की सूर्य को दरकार है ।।

गर इजाज़त माँगती तो जिंदगी शिकवे करूँ ।
बिन इजाज़त बात कहना भी यहाँ दुश्वार है ।।

जश्न का ये सिलसिला घर में चला जो रातदिन ।
कर भलाई दूसरों की जश्न फिर संसार है ।।

भूख जाने किस गली से आज दस्तक दे रही ।
वो सड़क पर ही ठिठुर के मौत को तैयार है ।।

इन गरीबों की रे' किस्मत चाख दिल हैं एक सब ।
सिसकियाँ ही हर्फ़ हैं औ हिचकियाँ अशआर है ।।

वो दिखावे को बसा के जाप मंतर यूँ करें ।
उस खुदा के ठौर का जैसे वही हक़दार है ।।

मै किराया जिस्म का इस रूह से लेता रहा ।
था अचंभा जिंदगी को मौत ही फनकार है ।।

जो खुदा के नाम पर खुद का भला करने लगा ।
शक्ल कैसी भी हो' उसकी नस्ल तो अय्यार है ।।

बादशाही कब रही इंसान की इंसान पे ।
वो ही मालिक वो ही कुदरत वो असल सरकार है ।।

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