1222 1222 1222 1222
गली तेरी पकड़ के हम कभी जब भी गुजरते हैं ।
जुबां ख़ामोश रहती है कदम अक्सर फिसलते हैं ।।
नही नजरें मिलाते हम डरें शायद ज़माने से ।
मगर चाहत लिये भीतर जवां दो दिल मचलते हैं ।।
इनायत देख हूँ हैरां मुहब्बत के खुदा तेरी ।
इधर वो घर से चलते हैं उधर बादल बरसते हैं ।।
ये शोखी और उसपर गाल में तेरे पड़ा डिम्पल ।
मेरे अरमा उसी में डूबकर बाहर निकलते हैं ।।
तरुण मुझको यकीनी बात पे भी है यही मसला ।
वो मेरा नाम लेने में भरी महफ़िल हिचकते हैं ।।
कविराज तरुण 'सक्षम'
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