Sunday, 4 March 2018

ग़ज़ल 91 गली तेरी पकड़ के हम कभी जब भी गुजरते हैं

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गली तेरी पकड़ के हम कभी जब भी गुजरते हैं ।
जुबां ख़ामोश रहती है कदम अक्सर फिसलते हैं ।।

नही नजरें मिलाते हम डरें शायद ज़माने से ।
मगर चाहत लिये भीतर जवां दो दिल मचलते हैं ।।

इनायत देख हूँ हैरां मुहब्बत के खुदा तेरी ।
इधर वो घर से चलते हैं उधर बादल बरसते हैं ।।

ये शोखी और उसपर गाल में तेरे पड़ा डिम्पल ।
मेरे अरमा उसी में डूबकर बाहर निकलते हैं ।।

तरुण मुझको यकीनी बात पे भी है यही मसला ।
वो मेरा नाम लेने में भरी महफ़िल हिचकते हैं ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

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