Saturday 21 April 2018

ग़ज़ल 93- दुनिया

ग़ज़ल - दुनिया

122 122 122 122
सुबह शाम रंगत बदलती है दुनिया
कलेवर नये रोज गढ़ती है दुनिया

कभी हार तो जीत मिलती यहाँ पर
ये अपने हिसाबो से चलती है दुनिया

कमाया है क्या औ लुटाया है कितना
इसी कश्म-ओ-कश में उलझती है दुनिया

है चित और पट दोनो इसके हवाले
अचानक ही पासा पलटती है दुनिया

दिली बेदिली हो वफ़ा बेवफा हो
ये बिन बादलों के बरसती है दुनिया

लिफ़ाफ़े मे खत इसके कितने तरह के
बुरा वक़्त आते ही पढ़ती है दुनिया

कभी साथ देती कभी छोड़ देती
'तरुण' सब तमाशे ये करती है दुनिया

कविराज तरुण

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