ग़ज़ल - दुनिया
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सुबह शाम रंगत बदलती है दुनिया
कलेवर नये रोज गढ़ती है दुनिया
कभी हार तो जीत मिलती यहाँ पर
ये अपने हिसाबो से चलती है दुनिया
कमाया है क्या औ लुटाया है कितना
इसी कश्म-ओ-कश में उलझती है दुनिया
है चित और पट दोनो इसके हवाले
अचानक ही पासा पलटती है दुनिया
दिली बेदिली हो वफ़ा बेवफा हो
ये बिन बादलों के बरसती है दुनिया
लिफ़ाफ़े मे खत इसके कितने तरह के
बुरा वक़्त आते ही पढ़ती है दुनिया
कभी साथ देती कभी छोड़ देती
'तरुण' सब तमाशे ये करती है दुनिया
कविराज तरुण
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