Saturday, 28 April 2018

ग़ज़ल 94 - स्वावलंबन


विषय - स्वावलंबन

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कभी बिन बात के हँसना कभी बिन बात के क्रंदन ।
यही कोशिश रहे मेरी महकता ही रहे चन्दन ।।

मै रश्मो को निभाता हूँ किसी माली के फूलों सा ।
नही कोई शिकायत है कि बचपन हो या हो यौवन ।।

जुड़ी जब ईंट से ईंटें तभी दीवार बन पाई ।
यही इक सीख लेकर के सँवरता ही रहा जीवन ।।

न महनत से बड़ा कोई न किस्मत से गिला कोई ।
कमाई खूँ पसीने की सजी बहतर मेरे आँगन ।।

सितारों से फलक अपना सजाने की नही चाहत ।
लिखूं खुद की कहानी यूँ *तरुण* पतझड़ मे ज्यों सावन ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

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