Saturday, 2 August 2025

ग़ज़ल अनमना सा मन मेरा

अनमना सा मन मेरा, जो तुम मनाओ मान जाये
क्यों किसी के दर से कोई रूठकर मेहमान जाये

एक दिल है एक धड़कन एक हैं हम दो नहीं हैं
ये मुझे मालूम है पर तू कभी तो मान जाये

हूँ अकेला दूर मंजिल राह में कांटे बहुत हैं
हार तबतक है नहीं जबतक नहीं अरमान जाये

एक तुम थे साथ मे तो जिंदगी थी साथ मेरे 
खैर! अब तुम जा रहे तो ख़्वाब जायें जान जाये

गीत कविता और गज़लें इसलिए लिखता 'तरुण' है 
क्या पता किस दिन तुम्हारा पंक्तियों पर ध्यान जाये

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