Friday 26 December 2014

व्यर्थ है जीवन

कभी कभी सोचता हूँ
व्यर्थ है जीवन ।
कभी किसी का हो न सका
अनर्थ है जीवन ।
कभी खुद की नादानियों से
कभी छोटी मोटी बेइमानियो से
कभी अपनी हरकतों से हँसाकर
जाने अनजाने तुझको रुलाकर
अपनी नासमझी मे
बर्बाद किया यौवन ।
कभी कभी सोचता हूँ
व्यर्थ है जीवन ।।
हम ना सो जाए कहीं
इसलिए पलकों को जगाये रखा
वो ना आ जाए कहीं
इसलिए दामन को बिछाये रखा
इन्तेहा नही थी मेरी चाहत की
वो ना घबराये कही
इसलिए अश्कों को छिपाये रखा
उनकी खुशियों को नज़र ना लगे
यही सोचकर इन नज़रों को झुकाये रखा
पतझड़ स्वीकार है अगर
उन्हें मिले सावन ।
कभी कभी सोचता हूँ
व्यर्थ है जीवन ।।

कविराज तरुण

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