Friday, 8 January 2016

खामोश सज़ा

एक उम्र मोहब्बत की जो तुमसे रज़ा होती ।
फिर मेरी ज़िन्दगी न खामोश सज़ा होती ।।

जो ज़िक्र फकीरो का कभी हमने सुना होता ।
बेशक इन साँसों ने न तुमको चुना होता ।
इस दर्द की स्याही की जो एक छींट पड़ी होती ।
न मै ही ख़फ़ा रहता न तुम ही ख़फ़ा होती ।

एक उम्र मोहब्बत की जो तुमसे रज़ा होती ।
फिर मेरी ज़िन्दगी न खामोश सज़ा होती ।।

मेरे ज़हन के लफ़्ज़ों ने जो तुमको छुआ होता ।
मुमकिन है कि गलती का तुमको अहसास हुआ होता ।
गर प्यार के मालिक ने की कबूल दुआ होती ।
तो मेरी खुशियों की न तासीर धुँआ होती ।

एक उम्र मोहब्बत की जो तुमसे रज़ा होती ।
फिर मेरी ज़िन्दगी न खामोश सज़ा होती ।।

वीराने की दस्तक को पहचान गया होता ।
दहलीज़ पे तेरी मै वापस न गया होता ।
जीने की अपनी फिर एक ख़ास अदा होती ।
महफ़िल में सितारो सी धाक जमा होती ।

एक उम्र मोहब्बत की जो तुमसे रज़ा होती ।
फिर मेरी ज़िन्दगी न खामोश सज़ा होती ।।

कविराज तरुण

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