Sunday, 14 July 2019

ग़ज़ल - धूप छाँव

डूबना नही इस बहाव मे
कश्तियाँ गईं धूप छाँव मे

छूटते यहाँ हैं भरम सभी
सोचना ज़रा मोल भाव मे

फिर सफर लिए इक शहर बना
टूटते शजर हैं दूर गाँव मे

बात बात पर कहकशे लगे
क्या दिखा उन्हें हाव-भाव मे

साहिलों को ये कब पता चला
छेद हो गया कैसे नाँव मे

साँस चल रही खैर शुक्रिया
खींचतान है रख-रखाव मे

कौन कह सका आगे हो क्या
जिंदगी रुके किस पड़ाव मे

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