Monday, 13 August 2018

ग़ज़ल 100 किधर गई

212 1212 212 1212

ऐ नदी नहर तेरी कश्तियां बिखर गईं ।
हम जवां तो गए मस्तियां किधर गईं ।।

दिन उदास हो गया चाँद भी तो खो गया ।
भागते रहे सभी हाय क्या ये हो गया ।।

शाम की ख़बर नही रात मे भी घर नही ।
लोग दिख रहे मगर ये मेरा शहर नही ।।

उम्र इसतरह मेरी जीते जी गुजर गई ।
हम जवां तो हो गए मस्तियां किधर गई ।।

बिन पतंग आसमाँ आज फिरसे रो रहा ।
भोर का उजास भी बादलों में खो रहा ।।

छत पे गिट्टियां नही खेल छूटने लगे ।
खुद-ब-खुद ही बाग़ से फूल टूटने लगे ।।

और शाख से सभी पत्तियां भी झर गई ।
हम जवां तो हो गए मस्तियां किधर गई ।।

देखता हिसाब हूँ झूठ की किताब में ।
क्या मजा मिले भला बोतलों शराब में ।।

यार सारे मतलबी साथ में फरेब भी ।
बेफिजूल खर्च में झर रही है जेब भी ।।

मूसकों की भीड़ से नोट भी क़तर गई ।
हम जवां तो हो गए मस्तियां किधर गई ।।

कविराज तरुण

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