122 122 122 122
बड़ी बेबसी थी बड़ी बेकली थी ।
मुहाने ख़ुशी के वो देखो चली थी ।।
वो चलने लगी पाँव अपने उठाकर ।
सजी सामने आज सारी गली थी ।।
थी तैयार वो संग काँटो पे चलने ।
बड़े नाज से जो अभी तक पली थी ।।
मगर कुछ हुआ मान के मकबरे में ।
ये दुश्मन ज़माना मची खलबली थी ।।
बना फिर वहाँ इस मुहब्बत का मलबा ।
रिवाजों के चलते वो धूं धूं जली थी ।।
कविराज तरुण
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