Sunday, 16 March 2025

ज़िन्दगी कैसी चल रही है

किसी ने पूछा - जिंदगी कैसी कट रही है 
ये कट कहाँ रही है किश्तों में बंट रही है

न दिन का है ठिकाना न रात का पता है 
न दिल में जब्त अपने ज़ज़्बात का पता है
एक दौड़ है ये ऐसी दौड़े ही जा रहे हैं 
हम हसरतों को पीछे छोड़े ही जा रहे हैं 

और मंजिले हैं ऐसी छूते ही हट रही है 
किसी ने पूछा - जिंदगी कैसी कट रही है

पैसे की भूख ऐसी अंधे को जैसे लाठी
क्यों आदमी है भूला ये जिस्म एक माटी 
जिसको खबर नही है क्या मोह क्या है माया 
दिनभर संवारता है वो जिस्म देह काया

पर जिस्म की उमर तो पल पल ही घट रही है 
किसी ने पूछा - जिंदगी कैसी कट रही है

जो लालची है उसको तोहफ़े मिले हुए हैं 
दहशत को कौन रोके जब लब सिले हुए हैं 
जो सत्य का सिपाही सीधा है नेक बंदा 
उसके लिए बना है फाँसी का एक फंदा

उसकी तमाम कोशिश फंदे में घुट रही है 
किसी ने पूछा - जिंदगी कैसी कट रही है

पाने की उसको चाहत खोने का डर अलग है 
उसका गुलाबी चेहरा दुनिया से पर अलग है 
मै छोड़ना भी चाहूँ तो छोड़ कैसे पाऊं 
उसकी गली से खुद को मोड़ कैसे पाऊं 

अपनी जुबां जब वो मेरा नाम रट रही है
किसी ने पूछा - जिंदगी कैसी कट रही है
ये कट कहाँ रही है किश्तों में बंट रही है

Wednesday, 26 February 2025

दिव्य भव्य महाकुम्भ

कुम्भ गया है, साथ में लेकर, कितनी सारी बातें 
पैतालिस दिन, माँ गंगा के, तीरे बीती रातें 

छाछठ कोटि की जनता ने, स्नान किया है पावन 
ऊंच नीच के बंधन टूटे, हर्षित मन का आँगन 

दिखे अखाड़े तेरह, उनका वैभव दिव्य अलौकिक 
चार हजार हेक्टेयर का, वर्णन मुश्किल है मौखिक 

नेता फ़िल्म सितारे सब ने, देखा दृश्य विहंगम 
उद्योगपति के अंतर्मन को, भाया अद्भुत संगम 

महाकुम्भ में देखी सबने, तकनीकी सौगातें 
चैटबॉट और एप के जरिए, डिजिटल कुम्भ की बातें 

महाकुम्भ में श्रद्धालु पर, फूलों को बरसाना 
मेलभाव से पुलिसबलों का, हम सबको समझाना 

सब लोगों का महाकुम्भ ने, किया यहाँ उद्धार 
जाने कितनों के जीवन को, मिली यहाँ रफ्तार 

धन्य हुए वो, जिन लोगों ने, किया यहाँ स्नान 
धन्य हैं वो भी, जिनके मन में, महाकुम्भ का ध्यान

सदा ऋणी हम योगी के, उत्तम था संचालन 
गर्व हमेशा करेगा उनपर, अपना धर्म सनातन

Tuesday, 25 February 2025

ग़ज़ल - लौट आऊंगा

ग़ज़ल - लौट आऊंगा 
© कविराज तरुण 

अकेला चल रहा पर मै किसी दिन लौट आऊंगा 
किसी मंजिल को हाथों में लिए बिन लौट आऊंगा

मुझे रिश्ते निभाना ठीक से आता नही है पर
मुझे जिसदिन लगेगा काम मुमकिन लौट आऊंगा

ये पंछी और लहरें भी तो वापस लौट आते हैं 
मै तो इंसान हूँ उनकी ही मानिन लौट आऊंगा

ये बस्ती आम लोगों से भरी क्यों है बताओ तुम 
अगर मुझको मिले कोई मुदाहिन लौट आऊंगा

मेरे आने से कोई भी नयापन तो नही होगा 
न कोई गुल खिले ना ख़ार लेकिन लौट आऊंगा

Thursday, 9 January 2025

पूछ

अपने दिल अपने यार अपने आवाम से पूछ 
तू मुझे पूछ बेशक़ किसी काम से पूछ 

फलाना घर फलानी जगह ये सब क्या है 
घर खोजना अगर हो तो मेरे नाम से पूछ 

कविराज तरुण

कलियाँ भी खिलतीं थीं

पहले फूल भी आते थे और कलियाँ भी खिलतीं थीं 
मेरे घर के लिए तब तो सभी गलियाँ भी मुड़ती थीं

मै अपनी बाँह फैलाकर फकत आराम करता था 
समंदर की तरह आकर कई नदियाँ भी मिलती थीं

कविराज तरुण

Sunday, 22 December 2024

ज़रा ईमान रहने दो

मेरे घर में कहीं पर एक रौशनदान रहने दो 
गिरो बेशक़ मगर इतना! ज़रा ईमान रहने दो

जरूरी है कि रौनक हो भरे गुलदान हों सारे 
मगर फिरभी कोई कोना कहीं वीरान रहने दो

वो आयेंगे मचाने शोर जिनको है नही परवाह 
जिन्हें परवाह हमारी है उन्हें अंजान रहने दो

उसे तो खेलने दो खेल सारे ही खिलौनों से 
जगाओ मत अभी तो ख़्वाब में अरमान रहने दो

ये मेरी रूह है इसको कहीं पर बेच दो लेकिन
किसी का प्यार से भेजा हुआ सामान रहने दो

मेरे घर में कहीं पर एक रौशनदान रहने दो 
गिरो बेशक़ मगर इतना! ज़रा ईमान रहने दो

Sunday, 8 December 2024

दो चार कदम

अपनी हद से आगे निकल के देखते हैं 
और दो चार कदम चल के देखते हैं 

वो कौन है जिसकी मलकियत है मंजिल पर 
आओ उसका चेहरा बदल के देखते हैं

ख़्वाब में अक्सर अपना घर बनाने वालों 
हम ख़्वाब देखते हैं तो महल के देखते हैं

दिल को समझा रखा है किस बात के लिए 
दिलवालों के दिल तो मचल के देखते हैं

क्यों चकाचौंध है तेरे वजूद के इर्द गिर्द 
क्यों लोग तुझे आँखें मल मल के देखते हैं

तुम शमा के जैसे रौशन हो शामियाने में 
हम परवाने तेरी आग में जल के देखते हैं

तेरे इंतज़ार में मै रो भी नही सकता
मेरे कुछ यार मेरी पलकें देखते हैं

अब तो दौलत भी किसी काम की नही
गुड्डे गुड़ियों में फिर से बहल के देखते हैं 

कागज़ की नाँव बनाये ज़माना बीत गया 
बारिश है.. नंगे पाँव टहल के देखते हैं

आतिशबाजी है शोर है हिदायत भी है 
पर बच्चे कहाँ तमाशा संभल के देखते हैं

अपनी हद से आगे निकल के देखते हैं 
और दो चार कदम चल के देखते हैं

लोग भुला नही पाते

हाल-ए-दिल जो कभी बता नही पाते
टूट जाते हैं वो मुस्कुरा नही पाते 

मै पाँव फैलाना तो छोड़ नही सकता 
भले मेरे पाँव चादर में समा नही पाते

मैं उन झरोखों से बाहर कूद जाता हूँ 
जिनसे मेरे सपनें अंदर आ नही पाते

ये तो उम्र का तकाजा है कि मै चुप हूँ 
वर्ना अच्छे-अच्छे भी चुप करा नही पाते

मुझे याद रखना आसान है बहुत 
दिक्कत ये है कि लोग भुला नही पाते

मुकम्मल

कि मै डोरियों में वो गुजरा ज़माना मोती समझकर पिरोता रहा
कि तू आएगी तो तुझे देके इसको मै अपनी मोहब्बत मुकम्मल करूँगा

मुसलसल करूँगा मै वो कोशिशेँ भी 
जो तन्हाईयों में इबादत करे
या कि बेचैनियों में हिमाकत करे

क्योंकि मुझको यकीं है कि इतनी मोहब्बत 
वो भी इतने दिनों से फकत माह सालों से या कि सदी से
वो भी इस ताज़गी से 
बड़ी सादगी से 
भला कोई कैसे कहाँ से करेगा

मुसलसल करूँगा मै वो कोशिशेँ भी 
जो मजनू ने लैला की खातिर नही की 
कोशिश जो राँझे ने आखिर नही की

कोशिश जो उन पगडंडियों को बना दे दोबारा जहाँ से मोहब्बत को राहें मिली थीं 
निगाहें मिली थीं जहाँ पे हमारी और क्या खूब बाहों को बाहें मिली थीं

कोशिश, चिरागों से उस आसमां को दिखाना कि इक चाँद है इस जमीं पर 
जिसने सितारों में मुझको चुना था
तेरी स्याह रातों में सपना बुना था 

मगर कुछ वजह ऐसी आई थी शायद 
मोहब्बत को परदे में रखना पड़ा था 
यही लफ्ज़ जाने से पहले कहा था 
और ये भी कहा था मै आऊंगी एक दिन 
तुम्हारे हवाले ये दिन रात करने 
खतम जो ना हो वो मुलाक़ात करने 

यही सोचकर मैंने दिल की इबारत को रखा है महफूज़ इक डायरी में 
कि तू आएगी तो तुझे देके इसको मै अपनी मोहब्बत मुकम्मल करूँगा

Tuesday, 3 December 2024

बहुत रमणीक स्थल था

बहुत रमणीक स्थल था 
घास थी हवा थी हवा में खुशबू और जल था 
बहुत रमणीक स्थल था 
मै गुजरा वहाँ से पर गुजर ना पाया 
कुछ फल लाये थे बैठा और खाया
घास को बिस्तर समझकर मै सो गया 
देखते ही देखते अँधेरा हो गया
फिर मै उठा आनन फानन में जेब टटोली मोबाइल निकाला 
सैकड़ों मिस कॉल पड़ी थी - घर ऑफिस दोस्त यार कुरियर वाला
पीछे मुड़कर देखा तो दो गिलहरी आपस में खेल रहीं थीं 
बड़ा खूबसूरत वो पल था
बहुत रमणीक स्थल था 
खैर! इस पल को कहकर अलविदा 
मै उठा और वापस चल दिया
मन में लाखों सवाल थे कि सबको मै क्या बताऊँगा 
जो ठहराव मैंने आज महसूस किया उसे कैसे जताऊंगा 
चिंता की रेखाएं मेरे माथे पर आ गईं 
खूबसूरत पलों पर जैसे बदली छा गईं 
मै तबीयत का बहाना बनाकर चुपचाप अपने घर में सो गया 
एक रात गुजरी एक नया सबेरा फिर से हो गया 
पर मेरे मन में जीवित मेरा बीता हुआ कल था 
बहुत रमणीक स्थल था 
घास थी हवा थी हवा में खुशबू और जल था 
बहुत रमणीक स्थल था

कविराज तरुण 

Tuesday, 26 November 2024

दो चार कदम

अपनी हद से आगे निकल के देखते हैं 
और दो चार कदम चल के देखते हैं 

वो कौन है जिसकी मलकियत है मंजिल पर 
आओ उसका चेहरा बदल के देखते हैं

ख़्वाब में अक्सर अपना घर बनाने वालों 
हम ख़्वाब देखते हैं तो महल के देखते हैं

दिल को समझा रखा है किस बात के लिए 
दिलवालों के दिल तो मचल के देखते हैं

क्यों चकाचौंध है तेरे वजूद के इर्द गिर्द 
क्यों लोग तुझे आँखें मल मल के देखते हैं

तुम शमा के जैसे रौशन हो शामियाने में 
हम परवाने तेरी आग में जल के देखते हैं

तेरे इंतज़ार में मै रो भी नही सकता
मेरे कुछ यार मेरी पलकें देखते हैं

अब तो दौलत भी किसी काम की नही
गुड्डे गुड़ियों में फिर से बहल के देखते हैं 

कागज़ की नाँव बनाये ज़माना बीत गया 
बारिश है.. नंगे पाँव टहल के देखते हैं

आतिशबाजी है शोर है हिदायत भी है 
पर बच्चे कहाँ तमाशा संभल के देखते हैं

अपनी हद से आगे निकल के देखते हैं 
और दो चार कदम चल के देखते हैं

मेरे घर के जालों की

मैंने अपने दिल की सुन ली तुमने दुनिया वालों की
तुम क्या जानो कीमत क्या है मेरे घर के जालों की

इन्हें पता है तुमने कैसे ख़्वाब दिखाए रातों में 
इन्हें पता है आशाओं के दीप जले थे बातों में
इन्हें पता तुम खुश कितनी हो जाती थी बरसातों में 
इन्हें पता है चलना फिरना हाथ पकड़कर हाथों में

इन्हें पता है अपनी सारी बातें बीते सालों की
तुम क्या जानो कीमत क्या है मेरे घर के जालों की

पहली दफा जो आई थी तो इन्हें हटाया था मैंने 
चिपक गए थे दीवारों से खूब छुड़ाया था मैंने
पर इनको इन दीवारों से जाने कैसी उल्फत थी 
मुझको तुमसे, इनको दीवारों से बड़ी मुहब्बत थी

तभी उकेरी दीवारों पर तस्वीरें उलझे बालों की
तुम क्या जानो कीमत क्या है मेरे घर के जालों की

इन जालों से कह लेता हूँ जो भी आता है मन में 
दर्द तेरे जाने का सहना सबसे मुश्किल जीवन में 
खुशियाँ लेकर चली गई तुम तबसे घर के आँगन में 
पतझड़ ही पतझड़ है शामिल वर्षा गर्मी सावन में

यही जानते हैं केवल गति क्या है हिय के छालों की 
तुम क्या जानो कीमत क्या है मेरे घर के जालों की

Saturday, 2 November 2024

मिट्टी के दीपक लेते जाना

दीवाली है, घर पर मिट्टी के दीपक लेते जाना 
बिक जायेंगे दीपक तो मिल जायेगा मुझको खाना

क्या तुम बस एलईडी से ही अपना घर चमकओगे 
या फिर मिट्टी के दीपक भी अपने घर ले जाओगे 
सोच समझकर जो भी मन में आये मुझको बतलाना 
दीवाली है, घर पर मिट्टी के दीपक लेते जाना

पिछली दीवाली में भी मै बैठा था इस कोने में 
मेरी सारी रात कटी थी मन ही मन बस रोने में 
इस बार अगर हो पाये तो मुझको ना तुम रुलवाना 
दीवाली है, घर पर मिट्टी के दीपक लेते जाना

उधर लाइट की चमक धमक है इधर बड़ा सन्नाटा है 
दीपक लेकर छत पर जाने में बालक शर्माता है 
उसे कभी तुम दीपक और दीवाली क्या है समझाना 
दीवाली है, घर पर मिट्टी के दीपक लेते जाना

मेरे घर में दीपक हैं पर रौशन कैसे कर दूँ मै 
भूखे हैं बच्चे मेरे पर पेट कहाँ से भर दूँ मै 
उन्हें पता क्या कितना मुश्किल है दीपक का बिक पाना 
दीवाली है, घर पर मिट्टी के दीपक लेते जाना

Thursday, 24 October 2024

ग़ज़ल- बताना तुम

जरा सी बात करना और हम से रूठ जाना तुम
यही आता यही करके हमें फिर से दिखाना तुम

मुझे लगता है सारी उम्र ऐसे बीत जायेगी
कभी तुमको मनाऊंगा कभी मुझको मनाना तुम

जमाने भर की दौलत का करूँगा क्या तुम्हारे बिन
मेरी हर एक पाई तुम मेरा सारा खजाना तुम

मै तुमसे जीत सकता हूँ मगर मै हार जाऊँगा 
मेरी बस एक कमजोरी नही आंसूँ बहाना तुम

'तरुण' होने की मुश्किल है कि बूढ़ा हो नही सकता 
बुढ़ापा आ भी जाये तो नही मुझको बताना तुम