Monday 31 December 2012

बचपन


बचपन

भीगी  पलकों  से  निहारता  हूँ  बचपन
बिखरे  सपने  संवारता  हूँ  बचपन 
जो गोद भूल  चुकी  है  जवानी
वो  गोद  फिर  से  मांगता  हूँ  बचपन

वक़्त  की  दहलीज  नहीं  इज़ाज़त  देंगी
कई  कसमें  मुझे  आज  रोक  लेंगी
कई  वादे  भी  मुझे  न  जाने  देंगे
कई  रिश्ते  अभी  और  ताने  देंगे
कई  सवाल  खड़े  हो  जायेंगे
सुर्ख  कांटें  कुछ  और बड़े  हो  जायेंगे
कुछ  तो  इस  दुनिया  का  दिलासा  देंगे
कुछ  हमदर्द  मुझे  थोड़ी  सी  आशा  देंगे

पर  मै  सिर्फ  यही  बात  जानता  हूँ  बचपन
तुझे  हर  रोज  प्रभु  से  मांगता  हूँ  बचपन

खुद  को  कई  रोज  अकेला  पाया  है  मैंने
बीते  लम्हों  को  कई  रोज  सजाया  है  मैंने
आज  पहेलियाँ  बन  गयी  है  मेरी  दुनिया
न  रही  सहेलियां  अब  कोई  गुड़िया
न  रहा  छज्जा  न  रही  दीवारें
कौन  अब  अपना  रहा  किसको  पुकारें
बस  तन्हाई  ही  दिखती  है  जहाँ  देखते  हैं  हम
भरी  महफ़िल  में  छाया रहता  है  केवल  गम
मै  इन्  दीवारों  को  छालान्गता  हूँ  बचपन
कोशिशें  कर  के  रोज  हरता  हूँ  बचपन

कई  आवाजे  पुकारती  हैं  मुझको
कई  चेहरे  उभारती  हैं  मुझको
कई  बातें  याद  हैं  कहानी  की  तरह
कई  रातें  साफ़  हैं  पानी  की  तरह
कई  अंदाज़े  गलत  हो  गए  पहेली  के
कई  दरवाजे  बंद  हो  गए  हथेली  के
कई  बार  नहीं  सोचा  मैंने  जिसको
वही  सच  सामने  चला  आया  है  कहूँ  क्या  किसको

इन्  रेखाओं  को  रोज  बिगाड़ता  हूँ  बचपन
वक़्त  की  छलनी से  तुझे  आज  छालता हूँ  बचपन

किस्से  कहानी  में  गुजरे  थे  जो  सितारे
भीगी  चांदनी  में  माँ  ने  थे  जो  कम्बल  डाले
और  अपने  हाथों  से  माँ  ने  जो  थप्पी  दी  थी
और  जाते  वक़्त  प्यार की जो झप्पी  दी  थी
मेरे मुरझाये चेहरे पर माँ  ने  जो  नदियाँ  बहाई  थी
हर  घाव  पर  मेरे  माँ  कैसे  घबरायी  थी
उन्  आँचल  ने  कैसे  मेरे  आंसू  को  थामा  था
मेरे  सपनो  में  गुजरा  माँ  का  जमाना  था

मै  फिर  वही  जमाना  पुकारता  हूँ  बचपन
गुजरे  कल  को  आज  पालता  हूँ  बचपन

मै  नहीं  था  मेरी  परछाई  होगी
न  जाने  कब  मेरी  रिहाई  होगी
कारवाँ  दूर  गया  मै  पीछे  छुटा  हूँ
बंद  चेहरों  से  अक्सर  मै  लुटा  हूँ
पर  नहीं  शिकन  फिरभी  भरोसा  है
बीते  रिश्तों  ने  कुछ  इसतरह  से  रोका  है
कि न  इस  पार  न  उस  पार  मंजिल  है  मेरी
हाथ  थामू  मै  किसका  मुश्किल  है  बड़ी

छुटे  कारवां  को  रोज  ताकता  हूँ  बचपन
वक़्त  कि  चिल्बन  से  झांकता  हूँ  बचपन

कोई  तो  आकर  मुझको  सहारा  देगा
भंवर  से  पार  कोई  मुझको  किनारा  देगा
कोई  बाती  न  कोई  दीपक  मुझे  नज़र  आये
कोई  अब  कैसे  अपने  शहर  जाए
शाख  के  पत्ते  कि  तरह  टूटकर  बिखर  रहे  हैं
पर  हमें  लगता  है  हम  सुधर  रहे  हैं
तभी  तो  आंख  में  सपने  भरे  हुए  हैं
ये  मगर  सच  है  हम  कुछ  डरे  हुए  हैं

बस  इसी  डर  से  कहारता  हूँ  बचपन
पीछे  मुड़कर  पुकारता  हूँ  बचपन
भीगी  पलकों  से  निहारता  हूँ  बचपन
बिखरे  सपने  संवारता  हूँ  बचपन

नज़्म ………

"हरकत  के  दिन  थे  फुर्सत  की  रातें |
खिलौने  के  झगड़े  परियों  की  बातें |
उलझन  नहीं  थी  बंधन  नहीं  थे |
  उम्र  कि  रहगुजर  में  वे  दिन  ही  सही  थे ||"

                                    ---------- कविराज तरुण


2 comments:

  1. Bohot khoob likha hai Tarun.

    Nav varsh ki hardik shubhkaamnayein...:)

    Regards

    Jay
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  2. Thanks Jay... aapko bhi nav-varsh ki mangal shubhkaamnaayein....

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