मुझे सुला दो माँ
मुझे सुला दो बाँहों में माँ नींद नहीं आती है ।
शाम गुजरती चिंता मे माँ रात निकल जाती है।।
छोटा था मै कितना चंचल और कितना प्यारा था ,
ना मेरा तेरी करता था सबकी आँखों का तारा था ।
अब दुनिया भर की बातों ने कैसे मुझे बदल डाला है ,
तुमने तो माँ बोला था ये जीवन फूलों की माला है ।
पर कांटो की चुभन से मेरी साँसे रुक सी जाती है ।
मुझे सुला दो बाँहों में माँ नींद नहीं आती है ।।
जब भी मै गलती करता था तुम नाराज़ नही होती थी ,
पापा की धमकी देती थी पर फिरभी कुछ ना कहती थी ।
बस प्यार से मुझको समझाकर थी लेती मेरी बलायें ,
माँ सारी बातें आज भी मेरे मन मंदिर में छा जायें ।
पर दफ्तर में गलती करने पर आफत सी आ जाती है ।
मुझे सुला दो बाँहों में माँ नींद नहीं आती है ।।
इस अफरा तफरी भागा दौड़ी में मेरा बचपन बिदक गया ,
माँ तुझसे दूर किया पैसों ने मै कितना सिसक गया ।
लगन लगाकर पढ़कर मैंने तेरी उम्मीदों को थाम लिया ,
घर से निकला सांस भरी एक और माँ का नाम लिया ।
पर अब माँ उम्मीदों की बोरी सिर पर अब भारी सी पड़ जाती है ।
मुझे सुला दो बाँहों में माँ नींद नहीं आती है ।।
--- कविराज तरुण
No comments:
Post a Comment