पथ प्रदर्शक
पथ शूल समेत निर्जन प्रतिपल ।
पदचिन्ह रचा तू पथिक अविरल ।।
घनघोर दिशायें तूफां हर पल
चट-चाटती राहें ह्रदय कल कल
रोये निकले तब अख से जल
कर दे ये सब बस भाव विह्वल
पथवृक्ष लगे कांटो का घर
पर फिर भी नित तू चलता चल
पथ शूल समेत निर्जन प्रतिपल ।
पदचिन्ह रचा तू पथिक अविरल ।।
रणभेरी कुंजो की धार है तू
शक्ति सन्लगित हथियार है तू
माँ का पावन निर्मल प्यार है तू
पिता की वाणी और संस्कार है तू
नभ शून्य बना दे भर दे तल
द्वेष राग को तू कर निर्बल
पथ शूल समेत निर्जन प्रतिपल ।
पदचिन्ह रचा तू पथिक अविरल ।।
जो गिरे कहीं तूफानों मे
उठ जा और फिर से कोशिश कर
ज्यों अभ्यासों को कर कर कर
जड़मति भी बन जाता बुधिधर
तो फिर क्यों तू निर आसित हो
यूं आँख मूदता रो रो कर
पथ शूल समेत निर्जन प्रतिपल ।
पदचिन्ह रचा तू पथिक अविरल ।।
--- कविराज तरुण
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