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ग़ज़ल - मुहब्बत मर गयी
सिलसिला कुछ यूँ चला मेरी शराफत मर गयी ।
छोड़ कर उसकी गली अब ये मुहब्बत मर गयी ।।
थाम कर था रख लिया मैंने हसीं जज़्बात को ।
आँख की कोरी सियाही की नियामत मर गयी ।।
मै पशो-उर-पेश मे वो रासता तकता रहा ।
कहकशों की दौड़ मे अहसास चाहत मर गयी ।।
सर्दियों की मौज मे अब बर्फ़ भी गिरने लगी ।
जम गये असरार मेरे तो अकीदत मर गयी ।।
मुन्तज़िर था मै कि वो आये वफ़ा के साथ मे ।
गैर के कंधे दिखा सिर सारी' हसरत मर गयी ।।
जब तराशा हाथ को हमने ज़िगर की आंच पे ।
ख़्वाब पाने का भरोसा और क़ूवत मर गयी ।।
मुफ़लिसी दिल की करी तुम दिलरुबा हो ही नही ।
मै तरुण ख़ामोश बैठा और दौलत मर गयी ।।
*कविराज तरुण सक्षम*
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