आज का विषय - सुहाने पल
दूरांत किसी कोने में
किसी स्याही सी काली रात में
सन्नाटे की अंतरिम ध्वनि
जो भँवरे की तरह ही
गूंजित हो रही थी कर्णपटल पर
पर चुभ रही थी
कोशिश तो यही थी
कि एकांत मिले
एक ऐसा एकांत जहाँ
सन्नाटे की भी ध्वनि न पहुँच पाये
पर मै असहाय
अपनी आँख बंद किये
मस्तिष्क की नसों की मंद किये
महसूस कर रहा हूँ
वायु-चापो को
जो कुछ सुना रही है
उसकी भी ध्वनि आ रही है
नही रोक सकता जिसे मै
चाहे कितने कोने में चला जाऊँ
खुद को कितना भी छुपाऊँ
प्रकृति व जीवन हैं अटल
रुकती नही है इनकी गति
करती रहेंगी ये हलचल
इस ध्वनि में ही खोजो नित संगीत
इसमें ही छुपे हैं
सुहाने पल
कविराज तरुण 'सक्षम'
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