Monday, 4 December 2017

ग़ज़ल 62

ग़ज़ल - छीन लेती है
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सनम अक्सर मिरे दिल की शराफत छीन लेती है ।
चली आती है' ख्वाबों मे मुहब्बत छीन लेती है ।।

जुबां की चासनी जब अर्क सी होंठो तले आये ।
किसी दिलकश मिठाई सी हलावत छीन लेती है ।।

गुज़ारिश और बारिश की अदा है एक जैसी ही।
बरसते हैं बिना मौसम इजाज़त छीन लेती है ।।

सिफारिश कर नही सकते रजामंदी नही मिलती ।
कि छत पे चाँद आ जाये इनायत छीन लेती है ।।

तरुण बेख़ौफ़ लिखता है मगर कुछ कह नही पाता ।
निगाहों की रुबाई को नज़ाकत छीन लेती है ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

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