Wednesday, 6 December 2017

ग़ज़ल 66 दम निकले

1222 1222 1222 1222

बहारे हुस्न के आखिर दिवाने कब ही' कम निकले ।
जिसे सोचा शराफत की इमारत वो' हरम निकले ।।

यही हम सोचते थे वो कभी कुछ कर नही सकते ।
सलीखे जिंदगी में आज आगे दस कदम निकले ।।

फरेबी दिल की आदत को कभी मै भाँप ना पाया ।
सियारो के लिबासों में मुजाहिद बेशरम निकले ।।

बना कर ताल बादल से मै' पानी मांगकर लाया ।
जली यों आग सीने मे सभी मौसम गरम निकले ।।

नही ऊँचा हुआ है कद उन्हें नीचा दिखाने से ।
करो कुछ इसकदर कोशिश तरुण मंजिल पे' दम निकले ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

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