1222 1222 1222 1222
बहारे हुस्न के आखिर दिवाने कब ही' कम निकले ।
जिसे सोचा शराफत की इमारत वो' हरम निकले ।।
यही हम सोचते थे वो कभी कुछ कर नही सकते ।
सलीखे जिंदगी में आज आगे दस कदम निकले ।।
फरेबी दिल की आदत को कभी मै भाँप ना पाया ।
सियारो के लिबासों में मुजाहिद बेशरम निकले ।।
बना कर ताल बादल से मै' पानी मांगकर लाया ।
जली यों आग सीने मे सभी मौसम गरम निकले ।।
नही ऊँचा हुआ है कद उन्हें नीचा दिखाने से ।
करो कुछ इसकदर कोशिश तरुण मंजिल पे' दम निकले ।।
कविराज तरुण 'सक्षम'
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