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बड़ी देखी तिरी दौलत निगहबानों पे क्या गुजरी ।
कुचलते ही रहे हरदम ये अरमानों पे क्या गुजरी ।।
बहुत इज्जत कमाते थे निगाहों ही निगाहों मे ।
जब इंसानों के दिल बदले तो इंसानों पे क्या गुजरी ।
कि ग़म को पेश करता था ख़ुदा तेरे हवाले मे ।
मगर ये ग़म मिला तुझसे शहर-थानों पे क्या गुजरी ।।
बिसाते जिंदगी के दाँव तू चलता रहा छिपकर ।
नही मालूम हो शायद कदरदानो पे क्या गुजरी ।।
मै घर की दाल चीनी में रहा उलझा रहा पिसता ।
मेरी किस्मत लकीरों के कतलखानों पे क्या गुजरी ।।
यही कारण नही करता महर कोई ज़माने में ।
जो देखा हाल फुरसत में महरबानों पे क्या गुजरी ।।
हुआ कुछ भी नही उनको जिसे दावत नही तेरी ।
'तरुण' अफ़सोस बस इतना कि महमानों पे क्या गुजरी ।।
कविराज तरुण 'सक्षम'
बहुत बेहतरीन ग़ज़ल कविराज जी
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