ऑनलाइन मुशायरे हेतु दूसरी प्रस्तुति
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गये तुम छोड़ के तन्हा तो पैमानों पे क्या गुजरी ।
कभी सोचा नही तुमने कि मैखानों पे क्या गुजरी ।।
बदन मेरा तड़पता ही रहा बेशक मुहब्बत में ।
निगाहों की खलिश कहती निगहबानों पे क्या गुजरी ।।
मै गिरता और उठता हूँ मगर मै चल नही सकता ।
कदम खुद रोक दें रस्ता तो अरमानों पे क्या गुजरी ।।
चमकती धूप सा रौशन तिरा मेरा फ़साना था ।
घिरे शक के घने बादल तो अफसानों पे क्या गुजरी ।।
तरुण से पूछ लेना तुम अगर खुद को समझना हो ।
जब इंसानो के दिल बदले तो इंसानों पे क्या गुजरी ।।
कविराज तरुण 'सक्षम'
बहुत सुंदर ग़ज़ल
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार
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