Wednesday, 7 February 2018

ग़ज़ल 87 मुमताज

221 2122 221 2122

वो बनके मेरी रानी मुमताज हो न जाये ।
ढपली बना कहीं वो फिर साज हो न जाये ।।

बेमेल की मुहब्बत माना तेरी हमारी ।
जो मै करूँ शिकायत नाराज हो न जाये ।।

परिवार ने बिछाया सिर पर मेरे बिछौना ।
मै दब रहा हूँ इसमें अब खाज हो न जाये ।।

किस्मत में ये लिखा था आयेगा वक़्त खोटा ।
बस डर यही है साहब ये आज हो न जाये ।।

मुँह बाँध कर ही आना घर में तरुण हमारे ।
ऐसा न हो तमाचे आगाज हो न जाये ।।

*कविराज तरुण 'सक्षम'*

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