सहायता
वो मजबूर है
बेसहारा भी है
कुछ समाज का कसूर है
वो किस्मत का मारा भी है
नही मिला परिवार का सुख
पैदा हुआ तो माँ भी चल बसी
उसकी झोली में आता रहा दुःख
मिल न सकी एक अरसे से ख़ुशी
ऐसा नही है उसने कोशिश नही की
घरों में बर्तन धोये
साईकिल के पंचर लगाये
ढाबे पर कई बार गालियां सुनी
जख्म कई बार बारिश में पकाये
वो लड़ता रहा
खुद से भी खुदा से भी
पेट भर लेता था
कभी कभी हवा से भी
अब वो चाहता है सबकुछ बदलना
सीख गया है अपने पैरों पर चलना
खोज लिया है उसने काम को
बढ़ाने चला है अपनी दुकान को
दुकान जिसमे सजाता है
मिट्टी के खिलौने
सोचता है हो जायेगा सफल
जगता है रोज सपने बोने
पर
फिरभी तिरस्कार
मिट्टी के दियों की किसे दरकार
दिवाली भी आ कर चली जाती है
चाइनीज़ बत्ती से उम्मीदें हार जाती हैं
वो सोचता है आखिर
उसकी क्या है खता
क्यों लोग खरीदकर
करते नही उसकी सहायता
कविराज तरुण 'सक्षम'
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