Sunday, 9 July 2017

ग़ज़ल 9- हमसफ़र चाहिये

बहर -212 212 212 212

हाँ मिरी जिंदगी को बसर चाहिये।
आप जैसा को'ई हमसफ़र चाहिये ।।

ताश के ढ़ेर ये कह रहे आजकल ।
जोड़ दो अब मुझे एक घर चाहिये ।।

ख़्वाब आने लगे जो हुई आशिक़ी ।
नींद आँखों में' अब तो ख़बर चाहिये ।।

दिल नही जो मिरा धड़कनों की सुने ।
तू इसे रात दिन उम्र भर चाहिये ।।

है तरुण आज शायर तिरे हुस्न का ।
प्यार की राह में अब गुजर चाहिये ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

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