ग़ज़ल - मै चाहता हूँ
१२२ १२२ १२२ १२२
रदीफ़ - चाहता हूँ
काफ़िया - अ स्वर
सुबह कर सके वो किरण चाहता हूँ ।
सबेरे सबेरे ग़ज़ल चाहता हूँ ।।
ये' बनती व मिटती लहर हैं बहुत पर ।
न मिट जो सके वो लहर चाहता हूँ ।।
फिरंगी जो खुद को खुदा कह रहे हैं ।
हक़ीक़त मे' उनकी दखल चाहता हूँ ।।
हवा आज नम खून के भी हैं' छींटे ।
मै' इसमे मुनासिब बदल चाहता हूँ ।।
हुई दूर इंसानियत आज माना ।
दिलों ही दिलों मे पहल चाहता हूँ ।।
फ़िज़ा हो गुलों सी ज़माना हसीं हो ।
हाँ' रंगत भरा वो शहर चाहता हूँ ।।
अदा हो असर ये गुजारिश खुदा से ।
तरुण बात में फिर अमल चाहता हूँ ।।
कविराज तरुण सक्षम
No comments:
Post a Comment