ग़ज़ल - दिलरुबा
बहर- 2212 2212 2212 2212
ये प्यार की तन्हाइयां , आघात बनकर दिलरुबा ।
शामिल हुई जहनो जिगर , नगमात बनकर दिलरुबा ।।
थी साहिलों की सोच ये , कश्ती भँवर के पार है ।
आई कहाँ तूफ़ान सी , बरसात बनकर दिलरुबा ।।
बेशक मिलन मुमकिन नही , तेरा मिरा ये जानते ।
होंठो पे' आई फिर भी' क्यों , जज़्बात बनकर दिलरुबा ।।
कहते सुना है आशिक़ी , जन्नत ख़ुदा का नूर है ।
इन दिलजलों से पूछना , तुम रात बनकर दिलरुबा ।।
संगीन था ये जुल्म तुमने , मुखबिरी की जब तरुण ।
हद से बुरे तब कर दिये , हालात बनकर दिलरुबा ।।
कविराज तरुण 'सक्षम'
साहित्य संगम संस्थान
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