Monday 5 February 2018

ग़ज़ल 85- क्या गुजरी 2

ऑनलाइन मुशायरे हेतु दूसरी प्रस्तुति

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गये तुम छोड़ के तन्हा तो पैमानों पे क्या गुजरी ।
कभी सोचा नही तुमने कि मैखानों पे क्या गुजरी ।।

बदन मेरा तड़पता ही रहा बेशक मुहब्बत में ।
निगाहों की खलिश कहती निगहबानों पे क्या गुजरी ।।

मै गिरता और उठता हूँ मगर मै चल नही सकता ।
कदम खुद रोक दें रस्ता तो अरमानों पे क्या गुजरी ।।

चमकती धूप सा रौशन तिरा मेरा फ़साना था ।
घिरे शक के घने बादल तो अफसानों पे क्या गुजरी ।।

तरुण से पूछ लेना तुम अगर खुद को समझना हो ।
जब इंसानो के दिल बदले तो इंसानों पे क्या गुजरी ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

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