Wednesday, 2 May 2018

ग़ज़ल 95 - श्रमिक

विषय - श्रमिक

श्रमसाध्य अपने ये दिवस कुछ यूँ बिताता है श्रमिक ।
इस धूप मे थक हार कर घर लौट आता है श्रमिक ।।

दो जून की रोटी मिले सपना यही उसका सुनो ।
इन होटलों को देख मन मे मुस्कुराता है श्रमिक ।।

रिक्शे के पैडल मारकर पाँवों पड़े छाले मगर ।
बच्चों से अक्सर बात ये हँसकर छुपाता है श्रमिक ।।

इस भूख से उसकी लड़ाई है पुरानी सी बहुत ।
वो पेट पर ही बाँध कपड़ा जीत जाता है श्रमिक ।।

मासूम भूखे सो न जायें है यही चिंता उसे ।
सौ ग्राम ही हो पर वो सब्जी रोज लाता है श्रमिक ।।

मजदूर अपनी हसरतों से दूर इतना वो हुआ ।
खुशियाँ अगर मिल जाये तो फिर मुँह चुराता है श्रमिक ।।

बेकार बातें ये सियासत क्या भला कोई करे ।
उम्मीद के इस दौर मे ये बुदबुदाता है श्रमिक ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'
9112291196

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