Monday, 7 May 2018

पटल विस्तार

[4/30, 16:10] कविराज तरुण: *ये समाज*

संकीर्ण संकुचित अवरुद्ध है ये समाज
क्या कहूँ कि कितना प्रबुद्ध है ये समाज

दोस्त ज्यादा है हमदर्द कम हैं
मन की बारिश है आंख नम है
झूठ फरेब और चपलता की हद है
जो मतलबी उसी का ऊँचा कद है

धन मान सम्मान फेसबुक टिंडर ट्वीटर
सब तो है पर वक़्त कहीं खो गया है
उसने माँ बाप के पैर छूने बंद क्या किये
सब कहते हैं बेटा अब बड़ा हो गया है

जो बड़ी शिद्दत से गर्लफ्रेंड को गिफ्ट दिलाता है
वो अपनी माँ का बर्थडे अक्सर ही भूल जाता है
फ़िक्र तो बस व्हाट्सएप के संदेशो में कैद है
काले से काला कृत्य भी अब तो दूध सा सफ़ेद है

आकलन कठिन कितना अशुद्ध है ये समाज
संकीर्ण संकुचित अवरुद्ध है ये समाज

पीठ में खंजर द्वेष ईर्ष्या जलन सब अंदर ही अंदर
निर्मम अमानवीय अशोभनीय व्यक्ति का आडंबर
सबकुछ असत्य सब कुछ षडयंत्र
बैठा हर मनुष्य में विषधर भुजंग

कहीं रक्षक भक्षक कहीं राजा ही चोर
भगवान के नाम पर कुकृत्य घनघोर
नफरत की असीम सत्ता धर्म जाति के नाम
करती रही समाज में मानवता को बदनाम

कोई दया भी करता है तो अहसान देकर
कोई अहसान भी करता है तो हिसाब लेकर
अपना हित साधने में लगे हुए भागती जनता
जिनके बेसब्र सपनों का घर कभी नही बनता

एक दूसरे के प्रति कितना क्रुद्ध है ये समाज
संकीर्ण संकुचित अवरुद्ध है ये समाज

कविराज तरुण 'सक्षम'
[5/1, 17:18] कविराज तरुण: जलतरंग का कलकल करता स्वर
नीले दर्पण में लालिमा का प्रादुर्भाव
जिसमे स्वर्ण सा चमकता सूर्य का रूप
और आशा की किरण का असीम प्रभाव

खगस्वरों से गूंजित संपूर्ण वायुमंडल
पानी में पुष्प का बिखरता स्वभाव
जिसमे तरु-पल्लव का निःस्वार्थ समर्पण
जैसे तैरती है नदी में बहकी हुई नाँव

इन्ही संवेदनाओं की अतुलित भाव भंगिमा
जब कागज़ पर उतरकर उदघोष करती है
तब उदित होता है एक नवीन प्रकाश
कलम नए जोश में तब प्राण भरती है

इन्ही भावों का प्रमाण है अभ्युदय काव्यमाला
इन्ही विचारों का प्राण है अभ्युदय काव्यमाला
[5/7, 18:31] कविराज तरुण: विषय - विकास

हे विकास तुम पुण्य प्रतापी
जन जन का उत्थान करो ।
सुनो ज़रा एक विनती है
हो सके तनिक तुम ध्यान धरो ।।

कब विकास होगा मन का
कब भेद मिटेगा जीवन का
कब धर्म जाति से ऊपर होगा
हर कोना घर के आँगन का

साधन के बढ़ते कर्कश मे
हमें सुनाई देगा क्या
योग बिना जीवन दुर्लभ है
हमें दिखाई देगा क्या

हम विकास को तौला करते
घर गाड़ी सड़क तिजोरी में
वो उतना विकसित है दिखता
जितना पैसा जिसकी बोरी में

पर संतो की अतुल्य धरोहर
चिंतित है कितनी व्याकुल है
जो जोड़ी मूल्यों की पाई पाई
जाने कौन दिशा गुल है

आत्मबोध से परे हैं हमसब
सभ्य आचरण खंडित है
जो उपदेश थोक में देता
वही हमारा पंडित है

हे विकास तुम पुण्य प्रतापी
आशा की किरण प्रदान करो ।
सुनो ज़रा एक विनती है
उज्ज्वल भावों के प्राण भरो ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'
9112291196

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