Saturday 3 February 2018

ग़ज़ल 83 क्या गुजरी

1222 x 4

बड़ी देखी तिरी दौलत निगहबानों पे क्या गुजरी ।
कुचलते ही रहे हरदम ये अरमानों पे क्या गुजरी ।।

बहुत इज्जत कमाते थे निगाहों ही निगाहों मे ।
जब इंसानों के दिल बदले तो इंसानों पे क्या गुजरी ।

कि ग़म को पेश करता था ख़ुदा तेरे हवाले मे ।
मगर ये ग़म मिला तुझसे शहर-थानों पे क्या गुजरी ।।

बिसाते जिंदगी के दाँव तू चलता रहा छिपकर ।
नही मालूम हो शायद कदरदानो पे क्या गुजरी ।।

मै घर की दाल चीनी में रहा उलझा रहा पिसता ।
मेरी किस्मत लकीरों के कतलखानों पे क्या गुजरी ।।

यही कारण नही करता महर कोई ज़माने में ।
जो देखा हाल फुरसत में महरबानों पे क्या गुजरी ।।

हुआ कुछ भी नही उनको जिसे दावत नही तेरी ।
'तरुण' अफ़सोस बस इतना कि महमानों पे क्या गुजरी ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

1 comment: