Sunday, 22 June 2025

कैसे हैं आप

पाप अत्याचार सबकुछ सामने, कैसे हैं आप
लोग पीड़ित हो गए हैं आपसे, कैसे हैं आप

बाहुबल से जंग तो जीती नही जाती जनाब
बात करने से निकलते रास्ते, कैसे हैं आप

चार पैसे के लिए कितना सुनूं, कबतक सुनूं मै
सर है गर्दन पर हमारे, सोचिये, कैसे हैं आप

झूठ के बिस्तर पे सोने से नहीं आती है नींद
आप हैं जो ख्वाब बोना चाहते, कैसे हैं आप

काम मुश्किल था नही पर, ये तरीका आप का
इक दफा कहते तरुण को प्यार से, कैसे हैं आप

कविराज तरुण

Thursday, 24 April 2025

शहीद की पत्नी

हमारे ब्याह की बातें सभी क्या याद हैं शोना
पकड़ के हाथ बोला था जुदा हमको नही होना

चले थे सात फेरों में कई सपने सुहागन के
मिला था राम जैसा वर खुले थे भाग्य जीवन के

ख़ुशी के थार पर्वत सा हुआ तन और मन मेरा
मुझे भाया बहुत सच में तुम्हारे प्यार का घेरा

कलाई पर सजा कंगन गले का हार घूँघट भी
समझता अनकही बातें समझता मौन आहट भी

मगर जब सामने आया मेरे आतंक जिहादी 
हुई फिर खून से लथपथ हमारा प्यार ये शादी 

हुआ सिंदूर कोसो दूर मेरा छिन गया सावन
सुनाई दे रही चींखें बड़ा सहमा पड़ा आँगन

बुला पाओ बुला दो जो गया है छोड़ राहों में
सभी यादें सिसक कर रो रही हैं आज बाहों में

मगर चुपचाप ऐसा पाप हम अब सह नही सकते 
ख़तम इनको किए बिन और जिंदा रह नही सकते 

कविराज तरुण

Sunday, 16 March 2025

ज़िन्दगी कैसी चल रही है

किसी ने पूछा - जिंदगी कैसी कट रही है 
ये कट कहाँ रही है किश्तों में बंट रही है

न दिन का है ठिकाना न रात का पता है 
न दिल में जब्त अपने ज़ज़्बात का पता है
एक दौड़ है ये ऐसी दौड़े ही जा रहे हैं 
हम हसरतों को पीछे छोड़े ही जा रहे हैं 

और मंजिले हैं ऐसी छूते ही हट रही है 
किसी ने पूछा - जिंदगी कैसी कट रही है

पैसे की भूख ऐसी अंधे को जैसे लाठी
क्यों आदमी है भूला ये जिस्म एक माटी 
जिसको खबर नही है क्या मोह क्या है माया 
दिनभर संवारता है वो जिस्म देह काया

पर जिस्म की उमर तो पल पल ही घट रही है 
किसी ने पूछा - जिंदगी कैसी कट रही है

जो लालची है उसको तोहफ़े मिले हुए हैं 
दहशत को कौन रोके जब लब सिले हुए हैं 
जो सत्य का सिपाही सीधा है नेक बंदा 
उसके लिए बना है फाँसी का एक फंदा

उसकी तमाम कोशिश फंदे में घुट रही है 
किसी ने पूछा - जिंदगी कैसी कट रही है

पाने की उसको चाहत खोने का डर अलग है 
उसका गुलाबी चेहरा दुनिया से पर अलग है 
मै छोड़ना भी चाहूँ तो छोड़ कैसे पाऊं 
उसकी गली से खुद को मोड़ कैसे पाऊं 

अपनी जुबां जब वो मेरा नाम रट रही है
किसी ने पूछा - जिंदगी कैसी कट रही है
ये कट कहाँ रही है किश्तों में बंट रही है

Wednesday, 26 February 2025

दिव्य भव्य महाकुम्भ

कुम्भ गया है, साथ में लेकर, कितनी सारी बातें 
पैतालिस दिन, माँ गंगा के, तीरे बीती रातें 

छाछठ कोटि की जनता ने, स्नान किया है पावन 
ऊंच नीच के बंधन टूटे, हर्षित मन का आँगन 

दिखे अखाड़े तेरह, उनका वैभव दिव्य अलौकिक 
चार हजार हेक्टेयर का, वर्णन मुश्किल है मौखिक 

नेता फ़िल्म सितारे सब ने, देखा दृश्य विहंगम 
उद्योगपति के अंतर्मन को, भाया अद्भुत संगम 

महाकुम्भ में देखी सबने, तकनीकी सौगातें 
चैटबॉट और एप के जरिए, डिजिटल कुम्भ की बातें 

महाकुम्भ में श्रद्धालु पर, फूलों को बरसाना 
मेलभाव से पुलिसबलों का, हम सबको समझाना 

सब लोगों का महाकुम्भ ने, किया यहाँ उद्धार 
जाने कितनों के जीवन को, मिली यहाँ रफ्तार 

धन्य हुए वो, जिन लोगों ने, किया यहाँ स्नान 
धन्य हैं वो भी, जिनके मन में, महाकुम्भ का ध्यान

सदा ऋणी हम योगी के, उत्तम था संचालन 
गर्व हमेशा करेगा उनपर, अपना धर्म सनातन

Tuesday, 25 February 2025

ग़ज़ल - लौट आऊंगा

ग़ज़ल - लौट आऊंगा 
© कविराज तरुण 

अकेला चल रहा पर मै किसी दिन लौट आऊंगा 
किसी मंजिल को हाथों में लिए बिन लौट आऊंगा

मुझे रिश्ते निभाना ठीक से आता नही है पर
मुझे जिसदिन लगेगा काम मुमकिन लौट आऊंगा

ये पंछी और लहरें भी तो वापस लौट आते हैं 
मै तो इंसान हूँ उनकी ही मानिन लौट आऊंगा

ये बस्ती आम लोगों से भरी क्यों है बताओ तुम 
अगर मुझको मिले कोई मुदाहिन लौट आऊंगा

मेरे आने से कोई भी नयापन तो नही होगा 
न कोई गुल खिले ना ख़ार लेकिन लौट आऊंगा

Thursday, 9 January 2025

पूछ

अपने दिल अपने यार अपने आवाम से पूछ 
तू मुझे पूछ बेशक़ किसी काम से पूछ 

फलाना घर फलानी जगह ये सब क्या है 
घर खोजना अगर हो तो मेरे नाम से पूछ 

कविराज तरुण

कलियाँ भी खिलतीं थीं

पहले फूल भी आते थे और कलियाँ भी खिलतीं थीं 
मेरे घर के लिए तब तो सभी गलियाँ भी मुड़ती थीं

मै अपनी बाँह फैलाकर फकत आराम करता था 
समंदर की तरह आकर कई नदियाँ भी मिलती थीं

कविराज तरुण