Thursday, 23 June 2016

ग़ज़ल -ओ रे शहज़ादी

ग़ज़ल - ओ रे शहज़ादी

अपने शीश महल में मुझको इतनी सलामी दे ।
शहज़ादी बन जाओ तुम बेशक मुझे अपनी गुलामी दे ।
मिलना और बिछुड़ना खुदा के रहमोकरम पर है...
मै तुझको याद आऊँ बस इतनी सी कहानी दे ।

अपने शीश महल में मुझको इतनी सलामी दे ।
शहज़ादी बन जाओ तुम बेशक मुझे अपनी गुलामी दे ।।

नही मुमकिन है तुमसे दूर रहना ओ रे शहज़ादी ।
तड़पते दिल की है तूही राहत ओ रे शहज़ादी ।
मै तुझको प्यार करता हूँ खुद से भी कहीं ज्यादा ।
नमाज-ए-अर्ज़ मेरी तू इबादत ओ रे शहज़ादी ।

तू मुझको रूह-ए-अज़मत की ज़रा कोई निशानी दे ।
दिल गुलज़ार हो जाए जो तू वादा ज़ुबानी दे ।
नज़र भर के निगाहें मोड़ दे मेरी निगाहों को ...
ख़ार से चाँद बन जाऊँ जो रहमत बे-नियामी दे ।

अपने शीशमहल में मुझको इतनी सलामी दे ।
शहज़ादी बन जाओ तुम बेशक मुझे अपनी गुलामी दे ।।

✍🏻कविराज तरुण

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