Thursday 19 October 2017

ग़ज़ल 57 दिवाली

1222 1222 1222 122

दिया बाती अभी से ही जलाने हम लगे हैं ।
दिवाली की कई रौनक लगाने हम लगे हैं ।।

सफेदी से दिवारें जगमगाई रात में भी ।
किवाड़ों को जतन से अब सजाने हम लगे हैं ।।

बढ़ा कुछ इसकदर अब धुंध मौसम खौफ़ मे है ।
पटाखे छोड़कर के गीत गाने हम लगे हैं ।।

मिठाई का रिवाजी पर्व जबसे आ गया है ।
जुबां पे चासनी के घोल लाने हम लगे हैं ।।

तरुण श्रीराम की उस जीत का अभिप्राय है ये ।
ख़ुशी अपनी जताकर फिर बताने हम लगे हैं ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

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