Monday, 4 September 2017

ग़ज़ल 31 बचपन खो गया

ग़ज़ल - बचपन खो गया
बहर - २२१ १२२२ २१२ १२२२

है कागज़ की कश्ती , बारिश का' भी पानी है ।
बचपन तिरी' यादों की , बस इतनी' निशानी है ।।

ये ढ़ेर जो' मिट्टी का , अब हमने' बना डाला ।
गुमनाम हुई इसमें , परियों की' कहानी है ।।

वो पेड़ तिरी डाली , झूमे थे' बहारों मे ।
काले से' अँधेरे मे , सिसकी ये' जवानी है ।।

गुड्डे गुड़िया से अब, हम खेल नही पाते ।
किस मोड़ रुकी आके, सपनो की' रवानी है ।।

हर रात यही सोचे , सूरज कल निकलेगा ।
ओझल इन आँखों से , वो सुबहे' सुहानी है ।।

झगड़े अब बचपन के , वो हमसे' नही होते ।
इकबार ख़फ़ा हो तो , सुननी न मनानी है ।।

पहले सब अपना था , दीवार नही कोई ।
पैसों की' लिखावट में , तक़दीर गँवानी है ।।

उलझन सुलझाने को , थे यार तरुण मेरे ।
हर चोट पे' रो पड़ते , वो बात पुरानी है ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

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