Tuesday, 19 September 2017

ग़ज़ल 39 - कलम के सिपाही

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कलम के सिपाही यही मानते हैं ।
सियाही मिलाकर ही' सच छानते हैं ।।

नही बैर कोई ज़माने रिवाजी ।
सही क्या गलत क्या वही ठानते हैं ।।

सुराही से' कह दो रहे और प्यासी ।
ये' बारिश के' मोती जमीं सानते हैं ।।

रकम से खरीदो न कुछ होगा' हासिल ।
लिखावट ये' झूठी नही जानते हैं ।।

फरेबी हो' फितरत कहीं और जाओ ।
न-सल की अ-सल को ये' पहचानते हैं ।।

तरन्नुम की' आहट तरुण कम न होगी ।
न जाने कि क्या क्या कवी फानते हैं ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

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