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कलम के सिपाही यही मानते हैं ।
सियाही मिलाकर ही' सच छानते हैं ।।
नही बैर कोई ज़माने रिवाजी ।
सही क्या गलत क्या वही ठानते हैं ।।
सुराही से' कह दो रहे और प्यासी ।
ये' बारिश के' मोती जमीं सानते हैं ।।
रकम से खरीदो न कुछ होगा' हासिल ।
लिखावट ये' झूठी नही जानते हैं ।।
फरेबी हो' फितरत कहीं और जाओ ।
न-सल की अ-सल को ये' पहचानते हैं ।।
तरन्नुम की' आहट तरुण कम न होगी ।
न जाने कि क्या क्या कवी फानते हैं ।।
कविराज तरुण 'सक्षम'
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