*कहानी - ४ / सुगंध*
आज फिर भोर हुई , चाय की चुस्की के साथ अखबार में अपना भविष्य तलाशने लगा । तभी हवा की हल्की बयार आई । एक महीन सी मीठी सुगंध ,अलग सी कशिश लिए और कुछ जानी पहचानी सी । बरबस ही मन व्याकुल हो उठा , कौतुहल हुआ और मेरी लालसा मुझे बगीची तक ले आई । मेरे घर की छोटी सी बगीची के एकदम कोने में रखे गमले में आज एक फूल खिला था ..गुलाब का फूल । अचरज था ये पेड़ तो मैंने नहीं लगाया । तिरस्कृत गमले की सूखी मिट्टी मे भी जीवन की संभावना साकार रूप ले ले तो उस परमशक्ति की महिमा पर कोरा यकीन होना स्वाभाविक है । अचरज इसलिए भी था क्योंकि फूल गुलाब का था , गुलाब जिसे देखकर उसका चेहरा याद आता है । उसे भी तो गुलाब पसंद थे । वो कहती थी अगर भगवान मुझे कहें कि इंसान के बदले तुम्हे क्या बनाऊँ तो मै गुलाब बनती । उसकी तरह सुन्दर , अपनी पंखुड़ियों के आँचल में लिपटकर , ओस की बूँद से नहाकर ,अपनी महक से भौरों को दीवाना बनाती । पगली थी वो । कहती कि तुम ओस की बूँद बन जाना । ओस की बूँद ! वो तो हल्की सी गर्मी में जल जाती है , हवा चली तो उड़ जाती है । मुझे अलग नहीं होना तुमसे , मै तो भौरा बनूँगा और हमेशा तुम्हारे करीब आकर तुम्हारी सुगंध से अपनी अंतरात्मा को तृप्त करूँगा ।
आँखे बंद थी और मै अपनी उस दुनिया के मध्य जहाँ गुलाब की सुगंध में संपूर्ण वातावरण था और उस गुलाब से भी सुन्दर मेरी प्रेयसी । सहसा आँख खुली , किसी ने आवाज दी शायद । देखा तो मै बिस्तर पर लेटा था । उठकर भागा पर बगीची में न तो गुलाब का फूल मिला न ही उसकी *सुगंध* ।
कविराज तरुण 'सक्षम'
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