Monday, 11 September 2017

ग़ज़ल 33 - सनम

बहर - 212 212 212 212
ग़ज़ल - सनम

212 212 212 212

चाँद के पार मंजिल वफ़ा की सनम ।
क्यों मुखालत करे है सजा की सनम ।।

मशवरे काम आते नही प्यार में ।
खुद से' कर तू मिलावट अदा की सनम ।।

शायरी दिलकशी या ग़ज़ल की तरह ।
हुस्न को भी जरूरत हया की सनम ।।

तिल हो' रुख़सार पे आँख हो जाम सी ।
और इक शाम हो बस दुआ की सनम ।।

साँस मिलती अगर यार दीदार से ।
हो जरूरत किसे अब हवा की सनम ।।

कह रहा ये तरुण बात भी मान लो ।
जख्मी' दिल को तमन्ना दवा की सनम ।।

कविराज तरुण सक्षम

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