Saturday, 16 September 2017

ग़ज़ल 37 - शैतान बैठे हैं

एक प्रयास

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कभी इज्जत कभी दौलत कभी ईमान बेचे हैं ।
गुफा से दूर ही रहना बड़े शैतान बैठे हैं ।।

लगाते हुस्न का डेरा खुदा की आड़ मे बेशक ।
दबे कुचले समझ लेते यहीं भगवान रहते हैं ।।

जरूरत क्या है' जाने की भला कुछ भी नही होता ।
हवस अपनी दिखाते और इसको ध्यान कहते हैं ।।

बड़ी 'आशा' करी 'निर्मल' 'रहीमी' और 'राधे माँ' ।
तुम्हारी बात मे अक्सर गुलाबी ज्ञान बहते हैं ।।

'तरुण' सब देख के जाना बुराई छिप नही सकती ।
खलिश इतनी मुझे शह क्यों इन्हें इंसान देते हैं ।।

कविराज तरुण 'सक्षम'

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