विषय - बेबस माँ
खाना परोसा है थाल सजाये हैं
उसने अपने दिल सब हाल छुपाये हैं
बेटा तो अब लौटकर आयेगा नही
उसकी तस्वीर को छप्पन भोग लगाये हैं ।
बेबस है बहुत लाचार भी है
आंसुओं से भीगी दीवार भी है
शाम आती है और आकर चली जाती है
कुछ रोज से वो बहुत बीमार भी है ।
टूटी ख़्वाहिश के बादल बरसने आये हैं
जिसे समझा अपना वो निकले पराये हैं
बह जायेगा घरोंदा कुछ आयेगा न हाथ
चूल्हे की आँच में जज़्बात जलाये हैं ।
बस की सीटी लगती बेकार भी है
झूठी दिलासा का रोज प्रहार भी है
जो गया वो वापस आयेगा नही
फिर भी दहलीज को उसका इंतज़ार भी है ।
बेसुध आँखों में लिपटे गमो के साये हैं
खाना परोसा है थाल सजाये हैं
उसने अपने दिल सब हाल छुपाये हैं ।।
कविराज तरुण 'सक्षम'
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