Sunday 4 June 2017

मेरी माँ

*मेरी माँ*

बूढ़ी हो चली है मेरी माँ
फिरभी उसे काम का भूत सवार रहता है
सोचती है ज्यादा बोलती है कम
पर आँखों का गहरा रंग बहुत कुछ कहता है

वो पीढ़ी अलग थी
जब डोली में सजकर वो आई थी
गाँव वालों ने भी उसदिन
पहली ग्रेजुएट बहू पाई थी

उसके आँखों में अनेक सपने थे
जिन्हें ये रीति रिवाज दबा ले गये
सेकती रही इन चूल्हों में रोटियाँ
जल जल के ख़्वाब हवा हो गये

याद है मुझे
माँ ने मेरे होने के बाद बी.एड. किया था
कई लोगो के व्यंग बाण सहकर
पापा के पास शहर जाने का फैसला लिया था

कभी हिंदी के मुहावरे
कभी संस्कृत के श्लोक सुनाती थी
सरकारी शिक्षिका वो बन न सकी
पर हमें हर रोज पढ़ाती थी

भोली है वो नादान है
बच्चे दूर हैं इसलिए परेशान है
पर अब भी अपना दुखड़ा हमसे छुपाती है
मुझे अपने बाबा की कही एक बात याद आती है
*कि तुम्हारी माँ कोई साधारण नही .. देवी है*
*नित इनकी सेवा करना ये गाय से भी सीधी है*

चला जाऊँ उसके पास
यही सोच अक्सर पानी इन आँखों से बहता है
बूढ़ी हो चली है मेरी माँ
फिरभी उसे काम का भूत सवार रहता है
सोचती है ज्यादा बोलती है कम
पर आँखों का गहरा रंग बहुत कुछ कहता है

*कविराज तरुण 'सक्षम'*

No comments:

Post a Comment