बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ
तवे पे आधी जली रोटियां
कुछ मुझ जैसा लिबास रखती हैं
बेटी के नाम पर जब छिन जाती है कोख
वो माँ उम्रभर इसका हिसाब रखती है
पति की इज्ज़त भी तब
टूटकर तार तार हो जाती है
जब अपनी रूह के टुकड़े से
एक माँ कभी मिल नही पाती है
शायद वो बोलती नही ये सोचकर
मेरी क़िस्मत को यही मंजूर था
या चुप हो जाती है ये मानकर
समाज का शायद यही दस्तूर था
पर ताज्जुब तो तब होता है
जब एक माँ ने दूसरी माँ की बेटी मारी
डुबाया खुद ही वजूद खुद का
मालूम तो होगा उसे वो भी है एक नारी
जाने जहन में कैसे
ऐसा पाप निकल के आता है
बच्चे को दो नज़र से देखने वाला
आखिर बाप ही क्यों बन पाता है
जरूरी है ऐसी सोच को
पैदा होने से पहले ही दफनायें
बेटी कई गुना बेहतर हैं बेटों से
आओ बेटी बचायें बेटी पढ़ायें
कविराज तरुण सक्षम
साहित्य संगम संस्थान
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