Tuesday, 6 June 2017

ग़ज़ल 2- गुजरना क्या

ग़ज़ल

गली से जो न हम गुजरें , निखरना क्या सवरना क्या ।
उनींदी हो अगर आँखें , ये' सूरज का निकलना क्या ।।

बड़े बेताब हो फिर से , मुहब्बत आजमाने को ।
डरो असफार से जो तुम , तो' चलना क्या टहलना क्या ।।

सलीखा भी जरूरी है , नही केवल अदब दिल मे ।
रिवाज़ो के चलन कुछ हैं , बिना वजहें मुकरना क्या ।।

चलो ये मान लेते हैं , जहन है पाक तेरा भी ।
मगर रुसवाई देते हो , हमे जब तो समझना क्या ।।

मुनासिर हूँ सदा तेरा , हमें जब भी बुला लेना ।
'तरुण' आवाज़ दे देना , बिना बोले गुजरना क्या ।।

*कविराज तरुण सक्षम*

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