Monday, 15 January 2018

कवियों का रहस्यवाद

कवियों का रहस्यवाद

सिमट जाता है कभी पलकों में
कभी दरिया बन बह निकलता है
पर्वत लाँघ लेता है क्षण भर में
कभी रेंगता हुआ सा चलता है

काली स्याही ओस की बूँदें पीपल की छाँव
शहर की गलियां टेढ़ी मेढ़े सूना सा गाँव
दिन का उजास रात की कालिमा
चाँद की चाँदनी सूरज की लालिमा
सब देखता है एक ही नज़र से
लिख देता नए भाव इनके असर से
धूल पानी ईंट मिट्टी चहारदीवारी
पेड़ पौधे काँटे फूल ये हरियाली
कभी दरवाजे कभी दरारें
टिमटिमाते हुए नभ के तारे
नदी समंदर ताल ठिकाने
कविता में बनते कितने फ़साने
नायिका से मिलन का प्रेमप्रयाग
विरह में जलती सीने की आग
गोलबंद हुए रिश्तों की खटास
बर्फी लड्डू बताशे मिठास
शब्दो में समेटने को आतुर रहता है
जो कह नही सकता वो भी कहता है

बिदक जाता है खुद की भावनाओं में
तो कभी मुक्त कंठ से शोर करता है
अपनी एक अलग दुनिया बनाने वाला
वो कवि है जो शब्दो में रंग भरता है

कविराज तरुण 'सक्षम'

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