Sunday, 14 January 2018

ग़ज़ल 72 धिक्कार है

*नारी की दशा/पीड़ा/अन्याय पर लिखी एक अधूरी ग़ज़ल*

Tag ur friends if you want to be a part of #CHANGE

2122 2122 212

जो समझते प्यार को व्यापार हैं ।
मेरी नज़रों में सभी अय्यार हैं ।।

झाकियें मन में इलाही बोलकर ।
खुद कहेंगे आप भी मक्कार हैं ।।

क्या करूँगा मै फ़ज़ीयत आपकी ।
लोग दुनिया के बहुत होश्यार हैं ।।

लुट रही सड़कों पे' तनहा आबरू ।
छोड़ उसको चल रहे रहगार हैं ।।

आहटें जो दर्द की हैं आ रही ।
अनसुना करते इसे हरबार हैं ।।

खून से लथपथ जो' बेटी रो रही ।
उसकी चीखें आप को धिक्कार हैं ।।

फिर सजा का केस बरसो तक चले ।
सच यहाँ सिस्टम सभी बीमार हैं ।।

बेटियां जिनके घरों मे पूछिये ।
क्या सज़ा के वो सभी हकदार हैं ।।

औरतों पर उठ रही हैं उँगलियाँ ।
आज भी सीता कई लाचार हैं ।।

जीन्स निक्कर टॉप लहँगा साड़ियां ।
कटघरे में कुर्तियां सलवार हैं ।।

जो पहनना हो ये' पहने बोल मत ।
क्षेत्र मे तेरे नही अधिकार हैं ।।

लाडले जब देर से घर आ रहे ।
बाप को सारी हदें स्वीकार हैं ।।

रात जब निकलें किसी घर बेटियां ।
तो तमाशे कर रहे परिवार हैं ।।

भेद ये बोलो मिटेगा क्या कभी ।
किस दुराहे पे तिरे व्यवहार हैं ।।

क्रमशः जारी..... कविराज तरुण 'सक्षम'

No comments:

Post a Comment