Wednesday 10 January 2018

हास्य कविता - दामाद (मनहरण घनाक्षरी)

हास्य- दामाद

चाल ढाल ठीक ही थे
देख भाल नीक ही थे
बात बात पे मगर
वो शोखी बघारते ।

आता मेहमान कोई
या फिर सामान कोई
घूर घूर देखकर
कमियां निकालते ।।

एकबार दाल मिली
सास के मकान पर
कुछ काला सा गिरा है
चीख के पुकारते ।

दौड़ी दौड़ी सासू आई
क्या हुआ कहो जमाई
जीरा भुन के यहाँ पे
संग घी के डालते ।।

क्या आये हो विदेश से
या हो किस प्रदेश के
माँ के हाथों का ये खाना
शक से निहारते ।

सम्मान है महान है
जमाई से ही जान है
बेटे से ज्यादा तुमको
प्रिय हम मानते ।।

गुण बड़े बहुत हैं
एक और राख लो जी
दूसरों से पहले ही
खुद में झाँक लो जी ।

देखना फिर तुम्हारा
काम जगमगायेगा
देवता के बाद नाम
आपका ही आयेगा ।।

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