ग़ज़ल
२१२२ २१२२ २१२
दो मिरी नज़रें तू' दो से चार कर ।
ख़्वाब के ही दरमियां अब प्यार कर ।।
सींक जैसी जिंदगी बारीक है ।
पर्वतों सा तू मिरा आधार कर ।।
मुश्किलों से मामला तुझतक गया ।
कार्यवाही कुछ भली इसबार कर ।।
रात की काली सियाही तेज है ।
आँच से ही रौशिनी साकार कर ।।
मै नही कहता मुहब्बत झूठ है ।
सच मगर इसको कभी तो यार कर ।।
चादरों को भी पसीना आ गया ।
चाहतों की देर तक बौछार कर ।।
आप के आगोश में हैं हसरतें ।
इस *तरुण* को खार से गुलज़ार कर ।।
*कविराज तरुण 'सक्षम'*
No comments:
Post a Comment